फेविपिरावीर को लेकर सवाल कई हैं, कोरोना की इस कथित दवा के बारे में जानें खास बातें
सेहतराग टीम
देश का मीडिया पिछले दो दिनों से एक बड़ी खबर को खूब चला रहा है और वो है ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल्स की फेबिफ्लू दवा को कोरोना की दवा के रूप में बिक्री और इस्तेमाल का लाइसेंस मिलना। हालांकि कमाल की बात है कि इस दवा से जुड़ी कुछ अहम तथ्यों के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है।
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सबसे पहले ये जान लेते हैं कि वास्तव में फेबिफ्लू दवा है क्या और इसकी इतनी चर्चा क्यों है? दरअसल फेबिफ्लू, फेविपिरावीर दवा का नया ब्रांड नाम है और फेविपिरावीर कोई नई दवा नहीं है। ये मूलत: एक एंटीवायरल दवा है जिसका असल पेटेंट जापान की फूजीफिल्म्स कॉरपोरेशन के पास था। फूजीफिल्म्स की दवा निर्माण इकाई इसे एवीजेन के नाम से बनाती थी। इस दवा को इंफ्लूएंजा में असरदार पाया गया था और बाद में इबोला, चिकनगुनिया आदि में भी इसे प्रभावकारी पाया गया। पिछले साल यानी 2019 में ये दवा पेटेंट से मुक्त हो गई थी यानी अब इसे दुनिया की कोई भी दवा कंपनी बना सकती थी।
जब कोरोना का संक्रमण फैला तब सबसे पहले चीन ने इस दवा का परीक्षण कोरोना मरीजों पर किया। वहां के डॉक्टरों ने कोरोना के हल्के और मध्यम संक्रमण वाले मरीजों पर इसे कुछ हद तक प्रभावकारी पाया। इसी को ध्यान में रखते हुए ग्लेनमार्क ने भी भारत के औषधि नियंत्रक एवं महापरीक्षक (डीसीजीआई) इस का भारत के कोरोना मरीजों पर क्लिनिकल ट्रायल करने की अनुमति मांगी जो कि उसे बहुत आसानी से मिल गई। इस दवा के चरण तीन के क्लिनिकल ट्रायल मई में शुरू हुए और अभी तक इसका परिणाम घोषित नहीं किया गया है मगर ग्लेनमार्क कंपनी का दावा है कि ये दवा कोरोना के हल्के और मध्यम लक्षण वाले मरीजों की स्थिति को और बिगड़ने नहीं देती और उनके फेफड़ों की हालत खराब होने से बचाती है और इस मामले में दवा 88 फीसदी कारगर पाई गई है।
इसी दावे के बाद कोरोना के प्रसार की गंभीरता को देखते हुए डीसीजीआई ने त्वरित फैसला लेते हुए इस दवा के बड़े पैमाने पर उत्पादन और बिक्री की अनुमति ग्लेनमार्क को दे दी। हालांकि डीसीजीआई ने ये शर्त जरूर लगाई है कि तीन महीने के अंदर क्लिनिकल ट्रायल के नतीजे उसके पास जमा किए जाएं। ऐसा लगता है कि ग्लेनमार्क कंपनी को पता था कि उसे आसानी से लाइसेंस मिल जाएगा क्योंकि कंपनी ने अगले ही दिन से हिमाचल प्रदेश के बद्दी से पूरे देश में दवा की आपूर्ति शुरू कर दी यानी कंपनी पहले से ही पूरी तरह तैयार थी।
अब बात करते हैं इस दवा के मूल्य और कोरोना मरीजों पर आने वाले खर्च के बारे में। कंपनी ने इस दवा के एक पैकेट की कीमत 35 सौ रुपये तय की है और एक पैक में 200mg वाली 34 टैबलेट होंगी। यानी एक टैबलेट की कीमत 103 रुपये। कंपनी द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार कोरोना के हल्के और मध्यम लक्षण वाले मरीजों को पहले दिन दवा की 3600mg खुराक लेनी होगी यानी 18 टैबलेट खानी होगी। इसके बाद अगले 14 दिन तक रोज 800-800mg की दो खुराक यानी रोजाना 1600mg यानी 8 टैबलेट। 14 दिन में 112 टैबलेट और पहले दिन 18 टैबलेट यानी मरीज को 15 दिन में कुल 130 टैबलेट का कोर्स करना होगा। 103 रुपये एक टैबलेट की दर से एक मरीज को इस दवा पर 13 हजार 390 रुपये खर्च करने होंगे।
अब कुछ सवाल जिनके जवाब ग्लेनमार्क कंपनी से ज्यादा डीसीजीआई को देने की जरूरत है।
फेविपिरावीर पेटेंट मुक्त दवा है और देश में कम से कम 10 ऐसी कंपनियां हैं जो ये दवा पहले से बना रही हैं मगर वो इसे देश में बेच नहीं सकतीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों को निर्यात करती हैं। ऐसी ही एक कंपनी मुंबई की एपल फार्मा और पुणे की ब्रिंटन फार्मा है। ब्रिंटन फार्मा तो इस दवा को दुनिया के 23 देशों में निर्यात कर रही है और हाल ही में मीडिया को जानकारी देते हुए कंपनी ने बताया था कि फेविपिरावीर का फुल कोर्स कोरोना मरीजों के लिए अधिकतम 5 हजार रुपये तक आएगा। सवाल ये है कि जब देश की दूसरी कंपनियां सस्ते दाम में ये दवा उपलब्ध करवा रही हैं तो एक खास कंपनी को इस दवा के भारत में इस्तेमाल के लिए लाइसेंस क्यों दिया गया? सवाल दूसरा, कोरोना महामारी को देखते हुए डीसीजीआई ने दवा के मूल्य को नियंत्रित क्यों नहीं किया?तीसरा सवाल, बिना क्लिनिकल ट्रायल के अंतिम नतीजे आए इस दवा की बिक्री की इजाजत देना क्या मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ नहीं है? चौथा और सबसे अहम सवाल, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च दोनों ये कह रहे हैं कि कोरोना के हल्के और मध्यम लक्षण वाले मरीज कुछ सावधानियों और सामान्य विटामिन और जिंक की गोलियों और गर्म पानी आदि के सेवन और प्राणायाम करने से ठीक हो सकते हैं तो उन्हें ऐसी दवा खिलाने पर जोर क्यों दिया जा रहा है जिसके परिणाम अभी तक निश्चित नहीं है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
चिकित्सा विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि फेबीफ्लू को कोरोना वायरस संक्रमण के इलाज के लिए रामबाण औषधि के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. एसपी कलंत्री ने मीडिया से कहा कि सरकार को इस दवा को लेकर जल्दबाजी नहीं दिखानी थी। उनके अनुसार चीन में सिर्फ 80 मरीजों पर इस दवा का अध्ययन किया गया और गंभीर अध्ययन के लिहाज से ये बहुत छोटा सैंपल है। इसके आधार पर मरीजों को यह दवा नहीं दी जा सकती है। इसी प्रकार कैंसर ग्रिड इंडिया के प्रोफेसर डॉ. रमेश बताते हैं कि अब तक एक भी अध्ययन ऐसा नहीं मिला है, जिसके आधार पर ये कहा जा सके कि ये कोरोना पर बेहतर परिणाम देता है।
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जहां तक भारत में अध्ययन का सवाल है तो खुद ग्लेनमार्क कंपनी ने भारत में हुए अध्ययन को लेकर अबतक कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी है। दूसरी ओर डीसीजीआई ने एक पब्लिक नोटिस जारी कर ये स्पष्ट किया है कि आपात स्थिति को देखते हुए इस दवा को मंजूरी दी गई है मगर इसका इस्तेमाल सशर् ही किया जाएगा। इसके लिए पहली शर्त ये है कि डॉक्टर की पर्ची के आधार पर ही दवा दी जा सकती है और दूसरी शर्त ये है कि मरीज या उसके परिजनों की लिखित अनुमति के बाद ही उन्हें ये दवा दी जाएगी। इससे सिर्फ पैसे कमाने की इच्छा से इस दवा का मनमाना इस्तेमाल नहीं हो सकेगा। हालांकि भारत में डॉक्टर और अस्पताल जिस तरह मरीजों को मौत का भय दिखाकर उनसे फार्म साइन कराते हैं उसे देखते हुए ये उपाय कितने कारगर होंगे वो सहज समझा जा सकता है।
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